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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी चतुर्थ प्रश्नपत्र - कथा-साहित्य

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2680
आईएसबीएन :0

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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी चतुर्थ प्रश्नपत्र - कथा-साहित्य

व्याख्या भाग

प्रश्न- प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' के निम्न गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

(1)

वह जैसे - - आदमी को हो सकता है।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत है।

प्रसंग - गोदान भारतीय जीवन के प्रत्येक पक्ष की झाँकी प्रस्तुत करने में सफल हुआ है। विपन्न परिवार का एकमात्र जीवनाधार वह पुरुष ही होता है जो रोटी कमाता है फिर भारतीय नारी के लिए तो उसका पुरुष जीवन रक्षा के लिए आवश्यक एवं महत्वपूर्ण है। होरी राय साहब के यहाँ जा रहा था। धनियाँ और होरी का हास-परिहास होता है। उसी समय गहरी गम्भीरता से होरी के मुँह से निकल जाता है कि सोंठ तक पहुँचने की नौबत न आने पायेगी धनियाँ। धनियाँ खिन्न होकर कहती है- 'अच्छा रहने दो मत अशुभ मुँह से निकालो' होरी कंधे पर लाठी रखकर घर से चला जाता है।

व्याख्या - होरी के ये निराशा से भरे शब्द धनिया के हृदय पर गहरी चोंट कर गये। वह जीवन भार विपन्न (गरीब) रही थी। गरीबी के सारे कष्ट उसने सहन किये थे, पर उसे अपने पति का सहारा था। निश्चिन्तता थी, उसके जीवन का एकमात्र सम्बल था। उसे सहसा आभास हुआ कि इन शब्दों में सत्यता है क्योंकि होरी दिन प्रतिदिन टूटता जा रहा था। आपत्तियाँ, विपन्नता, घी-दूध का आभाव उसके शरीर को निरन्तर कमजोर बना रहे थे। यह सब बराबर महसूस कर रही थी। सहसा यह सत्य उभरकर उसके सामने आ खड़ा हुआ कि भविष्य क्या होगा? उसका सम्पूर्ण हृदय रोम-रोम नारित्व का सम्पूर्ण तप और व्रत उसके पति को अभय दान देने हेतु मचल उठा अर्थात रोम-रोम पति की जीवन रक्षा हेतु छटपटा उठा। इस गरीबी की हालत में उसका पति, जो उसका सुहाग था ही एकमात्र ऐसा साधन था जिसके सहारे वह इस जीवन रूपी सागर को पार करने का प्रयास कर रही थी यह सुहाग ही उसके लिए तिनके के सहारे के सामान था। अतः उसके रोम-रोम से आशीर्वाद के व्यूह निकल कर होरी की रक्षा हेतु उसे अपने में समेट लेना चाहते थे।

होरी के ये असंगत शब्द यद्यपि वास्तविकता के निकट थे अर्थात् यथार्थ प्रकट कर रहे थे, ऐसे प्रतीत हुए मानो इस सुहाग रूपी तिनके के सहारे को वे शब्द झटका देकर छीन रहे हो स्थिति तो यही थी कि वे परिहास में कहे गये शब्द वास्तविकता के निकट थे। इसी से उसमें इतनी वेदना शक्ति आ गयी थी। क्योंकि शब्द यदि वे पीड़ादायक या अप्रिय हो तो पीड़ा तो हर स्थिति में पहुँचाते हैं, पर जब ये यथार्थ के निकट होते हैं तो अधिक पीड़ादायक हो उठते हैं प्रेमचन्द जी के अनुसार किसी को यदि काना कहा जाए और यदि वह वास्तव में काना है तो उसे पीड़ा तो होगी, पर शायद कम हो किन्तु यदि किसी दोनों आँखों वाले से काना कह दिया जाए तो उसे अधिक पीड़ा होगी।

(2)

सूखे बूढ़े - - - पाप नहीं।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत हैं।

प्रसंग - होरी जब राय साहब के यहाँ जा रहा था, तब ऊख को देखकर उसकी भावना जगी थी कि यदि इस वर्ष फसल अच्छी हो जाए तो एक गाय का इन्तजाम करेगा। मार्ग में उसे भोला मिल जाता है। वह ग्वाला था। उसकी पत्नी मर गयी थी पर उसे पत्नी पाने की लालसा थी। होरी उसका दूसरा ब्याह कराने का आश्वासन देता है। भोला प्रसन्न होकर उसे एक गाय उधार देना चाहता है इस पर होरी प्रसन्न होता है फिर वह अपने ऊपर चढे कर्ज के बारे में विचार करता है। फिर वह सोचता है कि अगर भोला की सगाई नहीं हो सकी तो उससे क्या फर्क पडेगा यही होगा कि भोला बार-बार माँगेगा। वह यह भी सोचता है कि भोला के साथ छल कर रहा है, उसे सगाई का आश्वासन देकर इन पंक्तियों में उसकी मानसिक स्थिति को उभारा गया है।

व्याख्या - किसानों पर प्रकृति प्रकोप भी पर्याप्त होते हैं कभी सूखा पड़ जाता है अर्थात् अनावृष्टि और कभी बूढ़ा अर्थात अतिवृष्टि इन विपदाओं के प्रभाव परिणामस्वरूप उनका मन भीरू बन गया था और ईश्वर का भयंकर रूप सदा उसकी आँखों के सामने रहता था। जो उसे भी अवांछित कर्म करने से रोकता रहता था। होरी इसे छल नहीं मानता यह तो मात्र स्वार्थ सिद्धि ही है जो बुरी बात कदापि नहीं है। ऐसे कार्य तो वह करता ही रहता है या उसे करने ही पड़ते हैं। वह अपने मन को समझाता है कि घर में दो चार रुपये रहने पर भी जब महाजन कुछ माँगने आता था तो कसमें खा जाता था कि एक पैसा भी नहीं है क्या यह छल नहीं था? यह उसकी विवशता थी जो उसे झूठ बोलने को विवश करती थी। आर्थिक अभाव के कारण वह सन को कुछ गीला करने का प्रयास कर रहा है, उसने इसे भी छल नहीं माना, यद्यपि यह सर्वथा अनैतिक हैं। भोला को सगायी का झाँसा देकर गाय उधार प्राप्त करना भी उसका स्वार्थ ही है क्योंकि उसके पास एकमात्र यही मार्ग है गाय प्राप्त करने का। वह यह भी सोचता है कि मनोरंजन भी होगा। भोला शादी के लिए व्याकुलता दिखायेगा। होरी को उसमें आनन्द का अनुभव होगा क्यों कि बूढ़ों की यह प्रवृत्ति हास्य का विषय ही बनती है। होरी सोचता है, ऐसे कुछ ऐठ लिया जाए तो कोई पाप या दोष नहीं।

 

(3)

मुझे तो यही - - - प्राणी है।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियों हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत है।

प्रसंग - पिछले अंश के समान होरी से राय साहब की बातचीत हो रही है।

व्याख्या - राय साहब यह स्वीकार करते हैं कि हमारे सुख और विलास के लिए धन तुमसे और तुम्हारें भाइयों से ही जमा किया जाता है वे यह भी स्वीकार करते हैं कि इससे किसानों को अपार कष्ट होता होगा। उनकी आहें भी निकलती होंगी। वे कहते हैं कि उन्हें तो यह सोंचकर आश्चर्य होता है की तुम्हारी आहों का दावानल हमें भस्म क्यों नहीं कर डालता। वे अपनी बात को बड़े सुन्दर ढंग से कहते हैं कि यदि आहों में भस्म करने की शक्ति होती तो अच्छा था क्योंकि भष्म करने में समय नहीं लगता जरा सी देर में भष्म किया जा सकता है और उसकी वेदना भी थोड़ी देर की होती है किन्तु वे तो धीरे-धीरे भीतर ही भीतर जल रहे हैं सुलग रहे हैं, क्योंकि जोर-जुल्म वे किसानों पर करते हैं या अन्य लोगों को नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। उसके लिए उन्हें अनेक लोगों का सहारा लेना पड़ता है। कभी वे पुलिस का प्रयोग करते हैं, कभी न्यायालय की शरण लेते हैं और कभी अफसरों को खुश करते हैं। उनके कथन का तात्पर्य यह है कि वे साधनों का उपयोग करके पुलिस अफसर, न्यायालय को अपने पक्ष में करते हैं। ताकि और अधिक धन कमा सके पर उनके लिए उन्हें इनके आगे झुकना पड़ता है, अपने को हीन समझना पड़ता है। वे अपनी उन मानसिकता को एक उदाहरण से स्पष्ट करते हैं कि जैसे रूपवती स्त्री पर सभी की निगाहें होती हैं, वह सभी के हाथ का खिलौना बन जाती है, उसी प्रकार की हमारी स्थिति है।

वे अपनी आन्तरिक पीड़ा और बाह्य वैभव की तुलना करते हुए कहते हैं कि दुनिया समझती है कि हम बहुत सुख चैन में हैं क्योंकि हमारे पास सब सुविधाएँ हैं जमीन-जायदाद हैं, महल है, सवारियाँ हैं, नौकर-चाकर हैं, वैश्यायें हैं और कर्ज भी हैं अर्थात् क्या नहीं है पर यह सब होने पर भी हमारी आत्मा निर्बल है, क्योंकि आत्म शक्ति स्वाभिमानी होती है और हम अपने स्वाभिमान को छोडकर मिथ्या अभिमान में जी रहे हैं तभी तो अधिक भोग प्राप्त करने की लालसा से गरीबों को सताते हैं और कहीं यह अत्याचार हाहाकार का रूप धारण न कर ले, हम अफसरों के सामने दुम हिलाते हैं। अतः हमें आदमी नहीं कहा जा सकता है।

वे अपनी स्थिति को और स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वह भी कोई इन्सान है, सुखी इन्सान है जिसे दुश्मन के भय के मारे रात को नींद नहीं आती हो, जिसका अस्तित्व दूसरों के पैरों से तले दबा हो, गरीबों को सताता हो उसे सुखी कैसे कहा जा सकता है। वास्तव में वह तो संसार का सबसे अधिक अभागा मनुष्य है।

 

(4)

कौन कहता है - - - संसार से उठ गया।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियों हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत हैं।

प्रसंग - होरी राय साहब के यहाँ से लौटकर जा रहा है मार्ग में उसे भोला मिल गया वार्तालाप का विषय राय साहब की कृपा पर जा टिका होरी वास्तविकता का चित्र उभारते हुए कहता है कि उसे भी इसी की चिन्ता परेशान कर रही है कि किसान को तो सभी को देना है महाजन को भी जमींदार को भी वह अपनी कर्जदारी का ब्यौरा भी पेश करता है और यह स्वीकार करता है कि हमारा जन्म इसलिए हुआ है कि अपना रक्त बहायें और दूसरे का घर भरें तभी यह प्रसंग सामाजिक मर्यादा पर टिकता है। होरी कहता है राय साहब ने बेटे के ब्याह में बीस हजार रुपया लुटा दिया। मंगऊ ने अपने बाप के क्रिया-कर्म में पाँच हजार लगाये। लोग हमी से कहते हैं कि हाँथ बाँधकर खरच करो। इस पर भोला कहता है कि बड़े आदमियों की बराबरी तुम कैसे कर सकते हो? होरी कहता है कि आदमी तो हम भी है उस पर भोला की टिप्पणी है -

व्याख्या - वर्तमान जीवन का कटु यथार्थ, आर्थित विषमता अभाव और पीड़ा की वास्तविकता को समझकर भोला यह स्वीकार करता है कि हमें आदमी कहना मुनासिब नहीं, उचित नहीं क्योंकि हममें आदमियत नहीं। वह आदमियत शब्द की व्याख्या भी करता है कि वास्तव में आज के युग में आदमी वह है जिसके पास धन है। अधिकार हैं, ज्ञान और विद्या है। वह यह स्वीकार करता है कि हम लोग तो बैल हैं और जुतने के लिए पैदा हुए हैं अर्थात् हमारा जीवन पशु तुल्य है जो हर समय कठोर परिश्रम हेतु ही बनाया गया है। इतनी विषम स्थिति में हम जी रहे हैं फिर भी आपस में हममे शत्रुता है। एक-दूसरे को देख नहीं सकते हैं। हममें जरा सी भी एकता नहीं है हमारी स्थिति यही है कि हम दूसरों के खेत हड़पकर ही अपनी तरक्की करने की बात सोंचते हैं। प्रेम तो मानों संसार से उठ गया है।

 

(5)

अज्ञान की भाँति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न वाला होता है। मानवता में उसका विश्वास इतना दृढ़, इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझने लगता है। वह यह भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का जवाब सदैव पंजे और दांतों से दिया है। वह अपना एक आदर्श संसार बनाकर उसको आदर्श मानवता से आबाद करता है, उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियों हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत हैं।

प्रसंग - गोदान के तीसवें परिच्छेद में खन्ना तो जली हुयी मिल को पुनः चालू करने में जुटे हैं, उधर मालती और मेहता के जीवन में भारी परिवर्तन यह आया है कि वे गावों में जाकर, दो चार घंटे उन्हीं झोपड़ियों में बिताते, वहीं खाना खाते और अपने को धन्य मानते। इसी क्रम में वे एक दिन समेरी विलारी गाँव पहुँच वहाँ सन्ध्या होने पर गाँव की औरतें इकट्ठी हो आयी, इन्हें मालती ने नारी कल्याण की गति समझायी और उधर पुरुषों के बीच खाट पर बैठे मेहता किसानों की कुश्ती देख रहे थे। सोचते-सोचते शिक्षित कहलाने वाले शोषण कर्ताओं के विषय में वे (मेहता) सोंचने लगे कि गांव के गरीब प्राणियों के साथ वे (मिल मालिक आदि) इतना निर्दयतापूर्ण व्यवहार क्यों करते हैं। उसी सोंचने के क्रम में वे आगे सोंचते हैं-

व्याख्या - एक ओर तो अज्ञानियों की यह दशा होती है कि वे सुनहरे सपने देखते हैं। उसी प्रकार दूसरी ओर पढ़े-लिखे लोग भी मानवता दिखाने को तो विश्वास व्यक्त करते हैं परन्तु होते हैं अमानुषिक हैं। पढ़े-लिखे लोग फिर क्यों भूल जाते हैं कि ग्रामीण भोले-भाले लोगों का शोषण क्यों करे ये ग्रामीण तो उन भोली निरीह भेड़ों की तरह ही होते हैं जिन्हें भेड़िए खा जाते हैं। उसी प्रकार समाज के तथाकथित पढ़े-लिखे (ज्ञानी) लोग इन गिरीह ग्रामीणों को खा जाते हैं फाड डालते हैं। इसका अर्थ यह है कि सामने चाहे कितने ही मासूम ग्रामीणों की ओर दया की दृष्टि से नहीं, अपितु क्रूरता की दृष्टि से देखते हैं। यह पढ़ा लिखा तबका भी बड़ा विचित्र होता है। उसका घेरा मानवता के नये मानदण्ड खड़े करता है दिखावे के लिए मानवता ही स्थापना के लिए फिर वे कुछ न कुछ उछल कूद भी करते हैं। ये पढ़े-लिखे लोग एक सभ्यता का घेरा बनाते हैं, उसी में डूबे रहते हैं, और जब उस घेरे में कोई बेपढ़ा, ग्रामीण साधारण जन घुस आता है तो उससे घृणा करेंगे, उसका शोषण करेंगे। कभी भी इस यथार्थ पर थोड़ा भी गौर नहीं करेंगे कि ये भोले ग्रामीण कितने गरीब हैं, दिन-रात खटते हैं परन्तु दो जून आटा भी इन्हें नहीं मिल पाता। इसी प्रकार सामाजिक वर्ग भेद का यथार्थ भी उन्हें नहीं दिखाई देता कि कमाते बेचारें गरीब हैं और ऐश करते हैं सफेद पोशी।

 

(6)

तुमने सदैव ------- आक्षेप न रखते।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियों हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुन्शी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से उद्धृत हैं।

प्रसंग - मेहता और मालती झाऊ की बनी नौका पर बैठे हैं। मालती ने यह भी कहा था कि डर किस बात का जब तुम साथ हो उन दोनों का आकर्षण दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था। मालती पूर्ण समर्पण करने को उतावली थी पर मेहता की जीवन-दृष्टि एक ऐसी नारी की कल्पना संजोये बैठी थी जो सर्वगुण स्थल त्याग सेवा सहिष्णुता की मूर्ति हो वे उन गुणों का बार-बार परख मालती में कर रहे थे और यही परीक्षण ही उन्हें पग-पग पर मालती में सर्वांग भाव में लीन होने में बाधक हो रहा था मेहता की इस परीक्षण मनोवृत्ति से मालती भी व्याकुल थी, वह तो मेहता का सर्वांग समर्पण चाहती थी उसकी यही खिन्नता और मानसिकता इन पंक्तियों में उभरकर सामने आयी है।

व्याख्या - मेहता अब भी यह स्वीकार नहीं करते हैं कि वे जिस आधार पर अपने जीवन की इमारत खड़ी करना चाहते हैं वह मालती के भीतर है। मालती इस बात से अत्यधिक व्यथित हो उठती है और कहती है कि तुम्हारा यह आक्षेप निराधार है क्योंकि तुमने मुझे कभी प्रेम की आँखों से देखा ही नहीं सदैव परीक्षा की आँखों से ही देखा है। परीक्षा करने पर तो अच्छे से अच्छे व्यक्ति में दोष दिख जाते हैं पर जब प्रेम की आँखों में देखा जाता है तो कोई भी दोष दिखायी नही देता यदि दिखायी भी देता है तो प्रेम की प्रगाढ़ता उसका परिष्कार कर देती है। वह यह स्पष्ट शब्दों में कहती है कि परीक्षा गुणों को अवगुण सुन्दर से असुन्दर बना देती है और प्रेम के माध्यम से अवगुण भी गुणों में बदल जाते हैं। वह स्पष्ट घोषण करती है कि उसने मेहता से प्यार किया है अतः वह कल्पना भी नहीं कर सकती कि उसमें कोई दुर्गुण भी है इसके विपरीत तुम हर क्षण मेरी परीक्षा ही करते रहे, छान-बीन करते रहे और मुझे पूरी तरह समझने में भी असमर्थ रहे कभी तुमने चंचल समझा कभी अस्थिर क्योंकि तुम्हारी दृष्टि में प्रेम नहीं परीक्षा की भावना थी। इस परीक्षा की दृष्टि के कारण भी तुम मुझसे सदैव दूर भागते रहे वह अपनी सारी आन्तरिक स्थिति को एक दम स्पष्ट करते हुए कहती है कि तुम्हारी इस परीक्षा की दृष्टि से मुझे भी अस्थिर और चंचल बना डाला है इसका कारण भी वह मेहता को ही मानती है क्योंकि नारी परीक्षण नहीं प्रेम चाहती है और प्रेम उसे आज तक प्राप्त नहीं हुआ है। मालती स्वीकार करती है कि उसने मेहता के प्रति सर्वागभाव से उसे आत्मसमर्पण किया है। अतः वह उसमें कोई त्रुटि नहीं देखती यदि ऐसा हो आत्मसमर्पण जैसे मालती ने किया है। मेहता ने भी मालती के प्रति किया होता तो वे भी मालती में कोई दोष न देखते जैसे मालती मेहता में कोई दोष नहीं देख रही है।

(7)

वह देह की वस्तु ........... वरदान पा सकते हैं।

सन्दर्भ - प्रस्तुत पंक्तियाँ हिन्दी के उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से अवतरित है।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में मेहता द्वारा मालती के प्रति आकर्षण होने पर मालती सेवाभाव से तपस्या की उच्चावस्था प्राप्त कर चुकी है अतः अब वह मेहता को आदर्श प्रेम का उपदेश देती है।

व्याख्या - मालती के प्रति आकृष्ट हुए मेहता से मालती कहती है। प्रेम मूल रूप से शारीरिक वस्तु न होकर दो आत्माओं के आपसी मिलन की वस्तु होती है। देह तो नश्वर और क्षणिक होती है। आत्मा का आधार अनन्त और विराट है। देह से आशक्त व्यक्ति में सन्देह का होना सम्भव है किन्तु आत्माशक्त व्यक्ति में सन्देह का कहीं भी स्थान नहीं होता शारीरिक स्पर्श तो क्षणिक आनन्द में तिरोहित हो जाता है जो समय के साथ सन्देह भी उत्पन्न कर सकता है किन्तु आत्मिक संस्पर्श सन्देह हीन होता है। मालती कही है कि सन्देह के परिणामस्वरूप ही हिंसा की उत्पत्ति होती है। प्रेम सम्पूर्ण आत्मसमर्पण का नाम है। मालती मेहता को सम्बोधित करती हुई कहती है तुम सन्देह के वशीभूत होकर परीक्षण की भावना लेकर यदि मेरे शरीर रूपी मन्दिर में प्रवेश करने को आतुर हो तो तुम उसमें प्रवेश नहीं कर सकते तुम्हें तो प्रेमरूपी मन्दिर में उपासक बनकर आ सकते हैं।

 

(8)

स्त्री पृथ्वी की भाँति धैर्यवान शान्ति सम्पन्न है और सहिष्णु है। पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है। नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है।

सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से अवतरित है।

प्रसंग - प्रस्तुत कथन मेहता का है। मेहता मालती से स्त्री के गुणों में पुरुष के गुणों का समावेश हो जाने पर कुलटा हो जाने की बात कहता है।

व्याख्या - मेहता मालती से कहती है कि वैसे तो स्त्री में पृथ्वी की तरह धैर्य, शान्ति और सहिष्णुता का गुण विद्यमान रहता है, नारी के इन्हीं गुणों को जब कोई पुरुष धारण कर लेता है तो वह वास्तव में सन्त कोटि में जाना जाने लगता है। अर्थात् यदि नारी के उपर्युक्त गुण पुरुष में आ जाते हैं तो पुरुष महात्मा हो जाता है किन्तु यदि नारी पुरुष का आचरण अपनाती है तो उसे कुलटा कहा जाता है क्योंकि मनुष्य के वास्तविक गुण कर्कष, अधैर्य, अशान्ति और असहिष्णु होते हैं। नारी के गुणों के विपरीत आचरण करने वाली नारी कुलटा नारी की उपाधि से विभूषित होती है। नारी यदि पुरुष जैसा आचरण करती है तो उसके अन्दर विद्यमान ममता, दया, कोमलता. स्निग्धता आदि गुणों का लोप हो जाता है और वह कुलटा हो जाती है किन्तु पुरुष नारी के गुणों को अपनाकर महात्मा हो जाता है इसका आशय यह है कि मेहता नारी के गुणों को पुरुष के गुणों से श्रेष्ठ समझता है।

 

(9)

स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अँधेरे से मनुष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर पहुँचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूँ उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ।

सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से अवतरित है।

व्याख्या - प्रस्तुत गद्यांश में उपन्यासकार स्त्री एवं पुरुष की तुलना करते हुए, स्त्री को हर प्रकार से पुरुष से श्रेष्ठ बताया है। स्त्री एवं पुरुष की तुलना करते हुए उपन्यासकार कहता है कि स्त्री प्रकाश के समान है तो पुरुष अन्धकार के समान है। मनुष्य जीवन में जिन आदर्शों को उच्चतम मानते हुए प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयासरत रहता है, वे क्षमा और त्याग के गुण तो स्त्री के स्वभाव में होते हैं। पुरुष त्याग और क्षमा जैसे उच्चतम गुणों को प्राप्त करने के लिए सदियों से कभी धर्म का कभी अध्यात्म का और कभी ऋषियों की भाँति तपस्या का सहारा लेकर प्रयत्नरत रहा है परन्तु ये गुण उसे आज तक प्राप्त नहीं हो सके जबकि स्त्री में ये गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं। इसीलिए उपन्यासकार संसार के सारे अध्यात्म और योग की तुलना में नारियों के त्याग को अधिक श्रेष्ठ मानता है।

 

(10)

धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को और रूप को, प्रतिभा और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धन-कुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं।

सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण हमारी पाठ्य-पुस्तक उपन्यास गोदान से लिया गया है। इसके लेखक श्री प्रेमचन्द जी हैं।

प्रसंग - प्रस्तुत अवतरण में मेहता जी ने सामाजिक विषमता पर करारा व्यंग्य किया है उनके अनुसार अगर धन की समानता कर भी दी जाये तब भी रूप शक्ति और बुद्धि के द्वारा सामाजिक विषमता पायी जायेगी। अर्थात् हम सामाजिक विषमता को दूर नहीं कर सकते है। अर्थात् समाज चाहे जितना शिक्षित एवं विकासशील हो जाये परन्तु समाज से असमानता को नहीं हटाया जा सकता है।

व्याख्या - प्रेमचन्द जी के अनुसार धन किसी के पास सामान नहीं होता है। यदि हम किसी अन्याय के द्वारा चाहे धन को सभी लोगों में सामान्य करना तब भी सामान्य नहीं हो सकता और यदि सामान्य कर भी दिया जाये तो भी रूप शक्ति और बुद्धि के द्वारा असमानता बनी रहेगी। मेहता के माध्यम से लेखक सम्पूर्ण समाज की विषमता को प्रकट करते हुए कहता है कि समाज से कभी ऊँच-नीच धनवान निर्धन अच्छा-बुरा, शक्तिशाली शक्तिहीन आदि में जो अन्तर है उसको सम्पूर्ण समाज के चाहने पर भी नहीं मिटाया जा सकता है यदि धन के आधार पर ऊँच- नीच, धनी-निर्धनी, अच्छा-बुरा शक्तिशाली शक्तिहीनता आदि के गुण एवं दोषों को मिटा भी दिया जाय तब भी समाज में समानता नहीं लायी जा सकती है क्योंकि असमानता सिर्फ धन के आधार पर नहीं होती है, रूप-रंग शक्ति बुद्धि के आधार पर भी समाज में असमानता पायी जाती है।

यदि हम चाहें व्यक्ति की प्रतिभा और बल को सामान्य रूप से समाज के सभी व्यक्तियों में उत्पन्न करके समाज का एक रूप सामने लाया जाय तो क्या यह सम्भव है उत्तर में होगा? नहीं। मुंशी प्रेमचन्द जी के अनुसार "बड़े-छोटे का भेद केवल धन से तो नहीं होता मैंने बड़े-बड़े धन कुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा।" से तात्पर्य है कि हर जगह धन ही महत्वपूर्ण नहीं होता, प्रेमचन्द के अनुसार यदि किसी महाराजा का इकलौता पुत्र मृत्यु का शिकार हो जाता है तो उसका कुबेर का खजाना काम नहीं आता, और यदि महाराजा को यह पता चलता है कि उसका पुत्र उस भिक्षुक के द्वारा जीवित हो जायेगा जिसको कभी राजा अपने द्वार पर बैठने नहीं देता था तो राजा उस भिक्षुक के सामने रोता और गिड़गिड़ाता दृष्टिगोचर होता है।

प्रेमचन्द जी के कहने का आशय यह है कि यदि स्त्री रूपवान है तो समाज में उसकी अलग जगह है अर्थात् स्त्रियों में भी समानता रूप के आधार पर पायी जाती है यदि स्त्री रूपवान है तो बड़े-से बड़ा व्यक्ति भी उसके रूप पर मुग्ध होकर उसकी चौखट पर नाक रगड़ते हैं। अर्थात् समाज में रूपहीन स्त्री को भी निर्धन मानव की तरह समस्याओं से गुजरना पड़ता है और धनवान की भाँति रूपमयी स्त्री समाज में सभी रूप प्राप्त करती है।

विशेष- मुंशी प्रेमचन्द जी ने इस अवतरण के माध्यम से यह बात स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि समाज में विषमता पायी जाती है यह सिर्फ धन के सम्बन्ध में ही नहीं पायी जाती है बल्कि शक्ति एवं रूप के द्वारा भी असमानता स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती है।

प्रस्तुत उपन्यास में मुंशी जी ने भारतीय कृषक के गुण-दोषों को पूरी सत्यता के साथ उजागर किया है। इसमें इन्होंने सरल भाषा एवं मुहावरेदार शैली का प्रयोग किया है।

प्रस्तुत अवतरण में मेहता की मनः स्थिति का सचित्र चित्रण किया गया है। मुंशी प्रेमचन्द के अनुसार बड़े से बड़ा व्यक्ति भी कभी किसी छोटे से तुच्छ से भिक्षुक के सामने गिड़गिड़ाता पाया जाता है। अर्थात् समानता समाज में कम और असमानता अधिक पायी जाती है।

अगर कोई व्यक्ति यह बात सोचे कि हम धनवान हैं हमारा किसी गरीब या भिक्षुक से काम नहीं पड़ेगा तो यह सोचना बिल्कुल गलत है। मुंशी प्रेमचन्द जी ने भी इसी बात को अपने उपन्यास में स्पष्ट किया है। और समाज को शिक्षा प्रदान करते हुए यह समझाने का प्रयास किया है कि समाज की विषमता को हम सब मिलकर ही दूर कर सकते हैं।

 

(11)

मेरे जेहन में औरत वफा और त्याग की मूर्ति है, जो अपनी बेजवानी से अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का एक अंश बन जाती है। देह पुरुष की रति है, पर आत्मा स्त्री की होती है। आप कहेंगे, मर्द अपने को क्यों नहीं मिटाता? औरत ही से क्यों आशा करता है? मर्द में वह सामर्थ्य ही नहीं है। वह अपने को मिटायेगा तो शून्य हो जायेगा। वह किसी खोह में जा बैठेगा और सर्वात्मा में मिल जाने का स्वप्न देखेगा। वह तेज प्रधान जीव है और अहंकार में यह समझकर कि वह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना किया करता है।

सन्दर्भ - प्रसंग - प्रस्तुत गद्य खण्ड मुन्शी प्रेमचन्द जी के प्रसिद्ध उपन्यास 'गोदान' से अवतरित है जिसमें प्रो. मेहता मिरजा खुर्शद के विचारों को निमूर्लीकृत करते हुये नारी विमर्श के सन्दर्भ में अपनी विचारधारा को प्रकट करते हैं। प्रो. मेहता मिस मालती से विवाह करना चाहते हैं, इस सन्दर्भ में अपने मित्र से वार्तालाप कर रहे हैं।

व्याख्या - प्रो. मेहता कहते हैं कि मेरे मतानुसार स्त्री त्याग भाव और वफा की साकार मूर्ति है। वह अपना मौन भरा आत्म-बलिदान करके और स्वयं की अहं भावना को मिटाकर पति की आत्मा का अंश बन जाती है। वह अपने समर्पण और त्यागादि गुणों से अपने पति को इतना प्रभावित करती है कि पति केवल अपने शरीर का ही स्वामी रह जाता है, उसकी आत्मा पत्नी की हो जाती है। आप यहाँ प्रश्न उठा सकते हैं कि नारी की तरह पुरुष आत्मसमर्पण क्यों नहीं करता? नारी से ही इसकी क्यों प्रत्याशा करता है? इसका एक ही उत्तर है - पुरुष में आत्मसमर्पण कर देने की क्षमता है ही नहीं, और यदि आत्म समर्पण करे भी तो वह शून्य और व्यर्थ हो जायेगा; संसार से विरक्त होकर वह किसी एकान्त गुफा में जा छिपेगा और ईश्वर से मिलने की कल्पना में खोया रहेगा प्रकृति से ही पुरुष तेज-प्रधान प्राणी है और इस अहंकार में भरकर कि वह ज्ञान का पुतला है, अतः वह ईश्वर में लीन हो जाने की कल्पना किया करता है।

विशेष :
1. नारी-विषयक धारणा बड़े ही सशक्त रूप में अभिव्यक्त हुई है।
2. नारी के आदर्श रूप की प्रतिष्ठा की गई है।
3. काव्यात्मक शैली का प्रयोग दृष्टव्य है।

 

(12)

बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिये सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी, लेकिन सम्पत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है। लेकिन उसकी सम्पत्ति विष होने के लिये, उसके बाद और भी प्रबल हो उठती है।

सन्दर्भ - प्रस्तुत गद्यांश उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित उपन्यास 'गोदान' से अवतरित की गयी है।

प्रसंग - इन पक्तियों में बुद्धि के हाथ में सम्पत्ति के सिवाय सब कुछ देने की बात कही गयी है।

व्याख्या - समाजवाद के आदर्श में बुद्धि को अपने हित से मुक्त होनी चाहिए। जब वह अपने हित से मुक्त होगी तो हम उसकी प्रभुता मान सकते हैं। लेकिन जब वह स्वार्थ वश है तो उसकी प्रभुता को नहीं स्वीकारा जा सकता है। ऐसी बुद्धि जो स्वार्थ रहित है हम उसकी अधीनता को स्वीकार कर सकते हैं। साधु-महात्माओं के सामने हम इसलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल होता है। अगर वे त्यागी नहीं हैं तो उनके सामने हम सिर नहीं झुका सकते हैं। बुद्धि के हाथ में हम अधिकार, सम्मान और नेतृत्व तो दे सकते हैं परन्तु सम्पत्ति को किसी कीमत पर भी नहीं दे सकते हैं। व्यक्ति जब इस संसार को छोड़ देता है तो उसका अधिकार और सम्मान उसके साथ चला जाता है। परन्तु उसकी सम्पत्ति नहीं जाती, वह तो विष होने के लिए पड़ी रहती है। व्यक्ति के मर जाने पर उसकी सम्पत्ति और प्रबल हो जाती है। सम्पत्ति के रहने पर उसके (सम्पत्ति के) उत्तराधिकारी उसे प्राप्त करने के लिए अपनी-अपनी दावेदारी प्रकट करते हैं। इन पंक्तियों में लेखक ने धन को ही सर्वोच्च माना है उसकी अधीनता में सब कुछ रहता है।

 

(13)

इसे तो सभी स्वीकार करेंगे कि अनेक प्रकार की शक्तियाँ जो वरदान की भाँति ईश्वर ने मनुष्यों को दी हैं, उनमें वाक्शक्ति भी एक है। यदि मनुष्य की और-और इंद्रियाँ अपनी-अपनी शक्तियों से अविकल रहतीं और वाक्शक्ति उनमें न होती तो हम नहीं जानते इस गूँगी सृष्टि का क्या हाल होता।

सन्दर्भ - प्रस्तुत अवतरण मोहन राकेश द्वारा लिखित 'आषाढ़ का एक दिन' नाटक से उद्धृत किया गया है।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तियों में ईश्वर द्वारा दी गयी शक्तियों के सन्दर्भ में वर्णित किया गया हैं।

व्याख्या - ईश्वर ने मनुष्य को विविध प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की हैं इसको सभी ने स्वीकार करते हैं। ये शक्तियाँ वरदान की तरह ईश्वर ने मनुष्यों को प्रदान की हैं, इन शक्तियों में वाक्शक्ति एक हैं यदि मनुष्य के अन्दर वाक शक्ति न हो तो सम्पूर्ण सृष्टि गूंगी रह जाती। मनुष्य की और इन्द्रियाँ अपनी शक्तियों से अधिक रहती और वाक्शक्ति उसमें न होती तो सम्पूर्ण सृष्टि का क्या होता? यह मानव विकास न कर पाता बिना विचारों का आदान-प्रदान किये विकास असम्भव है। बिना वाक्शक्ति के सम्पूर्ण मानवता गूँगी हो जाती।

 

(14)

जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का विकृत रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख माँगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिलकुल नहीं है। सच्चा आनन्द, सच्ची शांति केवल सेवा व्रत है। वही शक्ति का उद्गम है।

संदर्भ - प्रस्तुत गद्यांश उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित 'गोदान' उपन्यास से अवतरित किया गयी हैं।

प्रसंग - इन पंक्तियों में सरोज के बोलने के बाद जोरदार तालियाँ बजती हैं। युवतियाँ अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी। मेहता प्रेम शब्द पर कटाक्ष करते हुए कहते हैं।

व्याख्या - मेहता सरोज के उत्तेजित वाक्यों के बोलने के पश्चात जवाब देते हैं। सरोज जिसे तुम प्रेम कहती हो वह तो छलावा या धोखा है वह दिखावा मात्र है। वह तो उत्तेजित चाह का बिगड़ा हुआ स्वरूप है। यह बिगड़ा हुआ रूप उसी तरह से जिस तरह संन्यास केवल भिक्षा माँगने का संस्कृत रूप है। प्रेम अगर होता है तो वह वैवाहिक जीवन में होता है, मुक्त विलास में प्रेम नहीं होता। सेवा भावना में ही सच्ची शांति और सच्ची खुशी है। जिसके अन्दर सेवा व्रत नहीं है उसके अन्दर सच्चा प्रेम नहीं हो सकता है। सेवा व्रत ही शक्ति का उद्गम है। शक्ति की उत्पत्ति तो सेवा भाव से ही उत्पन्न होती है। केवल दिखावापन से कोई काम नहीं हो सकता उसमें वह आनन्द और वह शांति नहीं मिल सकती है जो सेवा व्रत में मिलती है। सेवा ही सीमेंट है जो पति-पत्नी को जीवन पर्यन्त के लिए जोड़ देते हैं।

विशेष -
(1) इन पक्तियों में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का चित्रण किया गया है।
(2) भाषा सरल, सहज व भावानुकूल खड़ी बोली है।
(3) दृश्यबिंब का प्रयोग हुआ है

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गोदान में उल्लिखित समस्याओं का विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- 'गोदान' के नामकरण के औचित्य पर विचार प्रकट कीजिए।
  3. प्रश्न- प्रेमचन्द का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद क्या है? गोदान में उसका किस रूप में निर्वाह हुआ है?
  4. प्रश्न- 'मेहता प्रेमचन्द के आदर्शों के प्रतिनिधि हैं।' इस कथन की सार्थकता पर विचार कीजिए।
  5. प्रश्न- "गोदान और कृषक जीवन का जो चित्र अंकित है वह आज भी हमारी समाज-व्यवस्था की एक दारुण सच्चाई है।' प्रमाणित कीजिए।
  6. प्रश्न- छायावादोत्तर उपन्यास-साहित्य का विवेचन कीजिए।
  7. प्रश्न- उपन्यास के तत्वों की दृष्टि से 'गोदान' की संक्षिप्त समालोचना कीजिए।
  8. प्रश्न- 'गोदान' महाकाव्यात्मक उपन्यास है। कथन की समीक्षा कीजिए।
  9. प्रश्न- गोदान उपन्यास में निहित प्रेमचन्द के उद्देश्य और सन्देश को प्रकट कीजिए।
  10. प्रश्न- गोदान की औपन्यासिक विशिष्टताओं पर प्रकाश डालिए।
  11. प्रश्न- प्रेमचन्द के उपन्यासों की संक्षेप में विशेषताएँ बताइये।
  12. प्रश्न- छायावादोत्तर उपन्यासों की कथावस्तु का विश्लेषण कीजिए।
  13. प्रश्न- 'गोदान' की भाषा-शैली के विषय में अपने संक्षिप्त विचार प्रस्तुत कीजिए।
  14. प्रश्न- हिन्दी के यथार्थवादी उपन्यासों का विवेचन कीजिए।
  15. प्रश्न- 'गोदान' में प्रेमचन्द ने मेहनत और मुनाफे की दुनिया के बीच की गहराती खाई को बड़ी बारीकी से चित्रित किया है। प्रमाणित कीजिए।
  16. प्रश्न- क्या प्रेमचन्द आदर्शवादी उपन्यासकार थे? संक्षिप्त उत्तर दीजिए।
  17. प्रश्न- 'गोदान' के माध्यम से ग्रामीण कथा एवं शहरी कथा पर प्रकाश डालिए।
  18. प्रश्न- होरी की चरित्र की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  19. प्रश्न- धनिया यथार्थवादी पात्र है या आदर्शवादी? स्पष्ट कीजिए।
  20. प्रश्न- प्रेमचन्द के उपन्यास 'गोदान' के निम्न गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- 'मैला आँचल एक सफल आँचलिक उपन्यास है' इस उक्ति पर प्रकाश डालिए।
  22. प्रश्न- उपन्यास में समस्या चित्रण का महत्व बताते हुये 'मैला आँचल' की समीक्षा कीजिए।
  23. प्रश्न- आजादी के फलस्वरूप गाँवों में आये आन्तरिक और परिवेशगत परिवर्तनों का 'मैला आँचल' उपन्यास में सूक्ष्म वर्णन हुआ है, सिद्ध कीजिए।
  24. प्रश्न- 'मैला आँचल' की प्रमुख विशेषताओं का निरूपण कीजिए।
  25. प्रश्न- फणीश्वरनाथ रेणुजी ने 'मैला आँचल' उपन्यास में किन-किन समस्याओं का अंकन किया है और उनको कहाँ तक सफलता मिली है? स्पष्ट कीजिए।
  26. प्रश्न- "परम्परागत रूप में आँचलिक उपन्यास में कोई नायक नहीं होता।' इस कथन के आधार पर मैला आँचल के नामक का निर्धारण कीजिए।
  27. प्रश्न- नामकरण की सार्थकता की दृष्टि से 'मैला आँचल' उपन्यास की समीक्षा कीजिए।
  28. प्रश्न- 'मैला आँचल' में ग्राम्य जीवन में चित्रित सामाजिक सम्बन्धों का वर्णन कीजिए।
  29. प्रश्न- मैला आँचल उपन्यास को आँचलिक उपन्यास की कसौटी पर कसकर सिद्ध कीजिए कि क्या मैला आँचल एक आँचलिक उपन्यास है?
  30. प्रश्न- मैला आँचल में वर्णित पर्व-त्योहारों का वर्णन कीजिए।
  31. प्रश्न- मैला आँचल की कथावस्तु संक्षेप में लिखिए।
  32. प्रश्न- मैला आँचल उपन्यास के कथा विकास में प्रयुक्त वर्णनात्मक पद्धति पर प्रकाश डालिए।
  33. प्रश्न- कथावस्तु के गुणों की दृष्टि से मैला आँचल उपन्यास की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  34. प्रश्न- 'मैला आँचल' उपन्यास का नायक डॉ. प्रशांत है या मेरीगंज का आँचल? स्पष्ट कीजिए।
  35. प्रश्न- मैला आँचल उपन्यास की संवाद योजना पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  36. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (मैला आँचल)
  37. प्रश्न- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी कला की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  38. प्रश्न- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' का सारांश लिखिए।
  39. प्रश्न- कहानी के तत्त्वों के आधार पर 'उसने कहा था' कहानी की समीक्षा कीजिए।
  40. प्रश्न- प्रेम और त्याग के आदर्श के रूप में 'उसने कहा था' कहानी के नायक लहनासिंह की चारित्रिक विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  41. प्रश्न- सूबेदारनी की चारित्रिक विशेषताओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  42. प्रश्न- अमृतसर के बम्बूकार्ट वालों की बातों और अन्य शहरों के इक्के वालों की बातों में लेखक ने क्या अन्तर बताया है?
  43. प्रश्न- मरते समय लहनासिंह को कौन सी बात याद आई?
  44. प्रश्न- चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी कला की विवेचना कीजिए।
  45. प्रश्न- 'उसने कहा था' नामक कहानी के आधार पर लहना सिंह का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  46. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (उसने कहा था)
  47. प्रश्न- प्रेमचन्द की कहानी कला पर प्रकाश डालिए।
  48. प्रश्न- कफन कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  49. प्रश्न- कफन कहानी के उद्देश्य की विश्लेषणात्मक विवेचना कीजिए।
  50. प्रश्न- 'कफन' कहानी के आधार पर घीसू का चरित्र चित्रण कीजिए।
  51. प्रश्न- मुंशी प्रेमचन्द की कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं, इस उक्ति के प्रकाश में मुंशी जी की कहानियों की समीक्षा कीजिए।
  52. प्रश्न- मुंशी प्रेमचन्द की कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। इस उक्ति के प्रकाश में मुंशी जी की कहानियों की समीक्षा कीजिए।
  53. प्रश्न- घीसू और माधव की प्रवृत्ति के बारे में लिखिए।
  54. प्रश्न- घीसू ने जमींदार साहब के घर जाकर क्या कहा?
  55. प्रश्न- बुधिया के जीवन के मार्मिक पक्ष को उद्घाटित कीजिए।
  56. प्रश्न- कफन लेने के बजाय घीसू और माधव ने उन पाँच रुपयों का क्या किया?
  57. प्रश्न- शराब के नशे में चूर घीसू और माधव बुधिया के बैकुण्ठ जाने के बारे में क्या कहते हैं?
  58. प्रश्न- आलू खाते समय घीसू और माधव की आँखों से आँसू क्यों निकल आये?
  59. प्रश्न- 'कफन' की बुधिया किसकी पत्नी है?
  60. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (कफन)
  61. प्रश्न- कहानी कला के तत्वों के आधार पर प्रसाद की कहांनी मधुआ की समीक्षा कीजिए।
  62. प्रश्न- 'मधुआ' कहानी के नायक का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  63. प्रश्न- 'मधुआ' कहानी का उद्देश्य स्पष्ट कीजिए।
  64. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (मधुआ)
  65. प्रश्न- अमरकांत की कहानी कला एवं विशेषता पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- अमरकान्त का जीवन परिचय संक्षेप में लिखिये।
  67. प्रश्न- अमरकान्त जी के कहानी संग्रह तथा उपन्यास एवं बाल साहित्य का नाम बताइये।
  68. प्रश्न- अमरकान्त का समकालीन हिन्दी कहानी पर क्या प्रभाव पडा?
  69. प्रश्न- 'अमरकान्त निम्न मध्यमवर्गीय जीवन के चितेरे हैं। सिद्ध कीजिए।
  70. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (जिन्दगी और जोंक)
  71. प्रश्न- मन्नू भण्डारी की कहानी कला पर समीक्षात्मक विचार प्रस्तुत कीजिए।
  72. प्रश्न- कहानी कला की दृष्टि से मन्नू भण्डारी रचित कहानी 'यही सच है' का मूल्यांकन कीजिए।
  73. प्रश्न- 'यही सच है' कहानी के उद्देश्य और नामकरण पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  74. प्रश्न- 'यही सच है' कहानी की प्रमुख विशेषताओं का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
  75. प्रश्न- कुबरा मौलबी दुलारी को कहाँ ले जाना चाहता था?
  76. प्रश्न- 'निशीथ' किस कहानी का पात्र है?
  77. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (यही सच है)
  78. प्रश्न- कहानी के तत्वों के आधार पर चीफ की दावत कहानी की समीक्षा प्रस्तुत कीजिये।
  79. प्रश्न- 'चीफ की दावत' कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
  80. प्रश्न- चीफ की दावत की केन्द्रीय समस्या क्या है?
  81. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (चीफ की दावत)
  82. प्रश्न- फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी कला की समीक्षा कीजिए।
  83. प्रश्न- रेणु की 'तीसरी कसम' कहानी के विशेष अपने मन्तव्य प्रकट कीजिए।
  84. प्रश्न- हीरामन के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
  85. प्रश्न- हीराबाई का चरित्र-चित्रण कीजिए।
  86. प्रश्न- 'तीसरी कसम' कहानी की भाषा-शैली पर प्रकाश डालिए।
  87. प्रश्न- 'तीसरी कसम उर्फ मारे गये गुलफाम कहानी के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
  88. प्रश्न- फणीश्वरनाथ रेणु का संक्षिप्त जीवन-परिचय लिखिए।
  89. प्रश्न- फणीश्वरनाथ रेणु जी के रचनाओं का वर्णन कीजिए।
  90. प्रश्न- क्या फणीश्वरनाथ रेणु की कहानियों का मूल स्वर मानवतावाद है? वर्णन कीजिए।
  91. प्रश्न- हीराबाई को हीरामन का कौन-सा गीत सबसे अच्छा लगता है?
  92. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (तीसरी कसम)
  93. प्रश्न- 'परिन्दे' कहानी संग्रह और निर्मल वर्मा का परिचय देते हुए, 'परिन्दे' कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।
  94. प्रश्न- कहानी कला की दृष्टि से 'परिन्दे' कहानी की समीक्षा अपने शब्दों में लिखिए।
  95. प्रश्न- निर्मल वर्मा के व्यक्तित्व और उनके साहित्य एवं भाषा-शैली का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  96. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (परिन्दे)
  97. प्रश्न- ऊषा प्रियंवदा के कृतित्व का सामान्य परिचय देते हुए कथा-साहित्य में उनके योगदान की विवेचना कीजिए।
  98. प्रश्न- कहानी कला के तत्त्वों के आधार पर ऊषा प्रियंवदा की 'वापसी' कहानी की समीक्षा कीजिए।
  99. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (वापसी)
  100. प्रश्न- कहानीकार ज्ञान रंजन की कहानी कला पर प्रकाश डालिए।
  101. प्रश्न- कहानी 'पिता' पारिवारिक समस्या प्रधान कहानी है। स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- कहानी 'पिता' में लेखक वातावरण की सृष्टि कैसे करता है?
  103. प्रश्न- निम्न में से किन्हीं तीन गद्यांशों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए। (पिता)

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